Sunday 24 February 2013

संत रविदास ज्यन्ती



कर्मप्रधान एवं व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानने वाले संत रैदास मूर्तीपूजा, तीर्थयात्रा में विश्वास नही करते थे। कबीर के समकालीन संत कवि रविदास का जन्म 1398 ई. में माघ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के निकट एक गाँव में हुआ था। रविवार के दिन जन्म होने के कारण आपका नाम रविदास रखा गया। आपके गुरु स्वामी रामानन्द थे।

रैदास की वाणी में भक्ति की सच्ची भावना और  समाज के हित की कामना सदैव परिलाक्षित होती थी। मानवीय प्रेम से ओत-प्रोत आपकी बातों से श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। आपके भजनों तथा उपदेशों से लोगों की शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: आपके अनुयायी बन जाते थे। कहा जाता है कि संत रैदास की ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था।
संत रैदास जी की काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग दिखता है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। आपके पदों में उपमा और रूपक अलंकारों का बहुत ही सुन्दर समन्यवय दिखाई देता है। सीधे-सादे पदों में संत कवि रैदास जी ने हृदय के भाव बड़ी स़फाई से प्रकट किए हैं। संत रैदास जी के चालीस पद सिखों के पवित्र धर्मग्रंथ 'गुरुग्रंथ साहब' में भी सम्मिलित हैं।

काशी में गंगा तट पर एक झोपड़ी में संत रैदास अपनी पत्नी के साथ रहते थे और जीविकोपार्जन के लिये जूते बनाते थे। जूते बनाने से जो भी आमदनी होती थी, उसी से रैदास खुशी-खुशी जीवन निर्वाह करते थे। फुरसत के समय में भगवद् भजन करते और सुख की नींद सो जाते। अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।

एक बार एक त्यौहार के दिन रैदास अपनी दुकान पर कठौती में जूता बनाने के लिये चमङा भीगो रहे थे कि उनका एक शिष्य जो गंगा नहाने जा रहा था, उसने रैदास से भी चलने का आग्रह किया। उन्होने शिष्य को समझाया कि मुझे अभी एक ग्राहक का जूता बनाकर देना है। यदि मैं काम छोङकर गंगा स्नान को जाता हुँ तो मन जूते में लगे रहने के कारण मुझे पुण्य नही मिलेगा। अतः जिस काम में मन ना लगे उसे नही करना चाहिये। यदि मन स्वच्छ है तो इस कठौती में ही गंगा स्नान का पुण्य मिल सकता है।
तभी से ये कहावत प्रसिद्ध हुई कि- मन चंगा तो कठौती में गंगा।

आपकी समयानुपालन की प्रवृत्ति तथा मधुर व्यवहार के कारण आपसे सभी लोग बहुत प्रसन्न रहते थे। शुरु से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे।

ऐसा कहा जाता है कि एक बार एक निर्धन स्त्री उनके पास आकर रोने लगी। उसने कहा कि विवाह में जाने के लिये मैं कङा माँग कर लाई थी, किन्तु गंगा स्नान के दौरान एक कङा वहीं गिर गया। संत रैदास जी बोले कि, तो कङा गंगा में ही जाकर ढूंढो वहीं मिलेगा। वह स्त्री करुण स्वर में बोली कि वहाँ कैसे ढूंढ सकते हैं?? और ना ही मेरे पास इतने पैसे हैं कि नया कङा बनवा कर वापस कर सकूं। वो संत रैदास से सहायता का आग्रह करने लगी। अन्त में स्त्री की व्याकुलता देखकर रैदास जी माँ गंगा का ध्यानकर जैसे ही कठौती में हाँथ डाले कङा उनके हाँथ में आ गया और स्त्री की समस्या का समाधान हो गया। समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए आप सदैव तत्पर रहते थे।

ऐसा माना जाता है कि सर्वप्रथम कबीर दास जी ने ही रैदास को संत रैदास कहा था। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। आज भी सन्त रैदास के उपदेश अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। ज्ञान और भक्ती के अनुठे संगम के साथ आपने कर्म की प्रधानता को भी सजीवता से समझाया है। हिन्दी साहित्य में संत कवि रैदास जी का स्थान महत्वर्पूण हैं और साहित्य जगत के आसमान में आप सदैव विद्यमान हैं।



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